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भारत में चिरस्थाई विकास के लिए शारीरिक वृद्धि दर में कमी एक बाधा

सुधा रामचंद्रन के द्वारा

बैंगलोर (IDN) – भारत को अपने बच्चों में शारीरिक वृद्धि दर की कमी को को कम करने के लिए दोगुना प्रयास करना होगा, न केवल इसलिए कि इससे बेहतर ढंग से उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास होगा, उनकी सीखने की क्षमता में वृद्धि होगी और उन्हें अपने जीवन-स्तर को बेहतर बनाने के अवसर प्राप्त होंगे बल्कि इसलिए भी ताकि देश के राष्ट्रीय पोषण अभियान के द्वारा निर्धारित 2022 की अंतिम समय-सीमा के अंदर राष्ट्रीय पोषण के लक्ष्य को पूरा किया जा सके और वर्ष 2030 तक सस्टेनेबल डिवेलप्मेंट गोल्स (SDGs) को पूरा करने के लिए विश्व को सक्षम बनाया जा सके।

भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 और 4 के आँकड़ों के अनुसार, शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रस्त पाँच साल से कम के बच्चों का अनुपात 2006 में 48% से घटकर 2016 में 38% हो गया है। जहाँ इस दशक में यह बहुत बड़ी कमी आई थी, वही प्रतिवर्ष कमी की दर मात्र 1% थी।

न केवल यह उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के बीच सबसे धीमी कमी की दर है बल्कि, इस दर के साथ, वर्ष 2022 की अंतिम समय-सीमा तक भारत में शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रस्त 31.4% बच्चे होगें। भारत के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम के द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्युरिटी अनैलिसिस, इंडिया, 2019 के अनुसार, वर्ष 2022 तक 25% के राष्ट्रीय पोषण अभियान के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए भारत को शारीरिक वृद्धि में कमी में वार्षिक रूप से कम से कम 2% की कमी लानी होगी।

भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के एक अधिकारी ने IDN को बताया कि, शारीरिक वृद्धि में कमी (आयु की तुलना में छोटा कद) दीर्घकालिक पोषण में कमी को दर्शाती है और भारत में दुनिया में सबसे अधिक संख्या में शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रस्त बच्चे रहते हैं; भारत में लगभग 4 करोड़ 66 लाख बच्चे शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रस्त हैं। इसलिए, शारीरिक वृद्धि में कमी से निपटने में भारत की प्रगति का इसपर “अहम प्रभाव” पड़ेगा कि क्या वैश्विक समुदाय वर्ष 2030 की अंतिम समय-सीमा तक SDG 2 के लक्ष्य को पूरा कर पाने में सफल रह पाता है या नहीं।

शारीरिक वृद्धि में कमी और अन्य प्रकार की पोषण की कमी को दुनियाभर के सभी बच्चों में से लगभग आधे बच्चों की मृत्यु के लिए जिम्मेदार बताया जाता है, इसके परिणामस्वरूप मानसिक योग्यता और सीखने की क्षमता में गिरावट आती है और विद्यालय में ख़राब प्रदर्शन देखने को मिलता है। इससे मधुमेह, उच्च-रक्तचाप, और मोटापे जैसे, पोषण से संबंधित दीर्घकालिक रोगों के होने का खतरा बढ़ जाता है।

नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की स्वास्थ्य पहल की वरिष्ठ सदस्य, शोबा सूरी ने कहा कि, शारीरिक वृद्धि में कमी के “परिणाम जीवनभर भुगतने पड़ते हैं”। यह शिक्षा में बच्चे की संपूर्ण क्षमता को बाहर नहीं आने देती और इस प्रकार बाद में जीवन में उसे “कम व्यावसायिक अवसर” प्राप्त होते हैं। शारीरिक वृद्धि में कमी व्यक्ति की आजीविका कमाने की क्षमता को प्रभावित करती है। अनुमान है कि स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में एक वयस्क के रूप में शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रसित व्यक्ति 20% कम कमाई कर पाते हैं।

विश्व बैंक के अध्ययन, जिसमे पता चला था कि “बाल्यकाल में शारीरिक वृद्धि में कमी के कारण वयस्क के कद में 1% की कमी का आर्थिक उत्पादकता में 1.4% की कमी से संबंध है” का हवाला देते हुए सूरी ने कहा कि, शारीरिक वृद्धि में कमी भारत के आर्थिक विकास को भी प्रभावित करती है।

इस सरकारी अधिकारी ने कहा कि, शारीरिक वृद्धि में कमी में गिरावट लाकर भारत “आर्थिक उत्पादकता को बढ़ा पाएगा”। शारीरिक वृद्धि में कमी को रोकने में भारत की सफलता निर्धारित करेगी कि क्या वैश्विक समुदाय SDG 8 के लक्ष्य को हासिल कर पाएगा कि नहीं, जिसका “लक्ष्य न केवल आर्थिक विकास करना है बल्कि 2030 की अंतिम समय-सीमा तक समावेशी विकास करना है।” उन्होंने कहा कि, SDG 8 तबतक पूरा नहीं किया जा सकता है जबतक कि “लाखों भारतीय शारीरिक वृद्धि में कमी से ग्रसित हैं और इसलिए पूर्ण और उत्पादक रोजगार प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं।”

बच्चों में शारीरिक वृद्धि में कमी जैसी संबंधित समस्याओं को रोकने के लिए कुपोषण का मुकाबला करने के लिए भारतीय सरकार ने बच्चों के पोषण पर केन्द्रित कार्यक्रम शुरू किए हैं। इनमे सबसे मुख्य है इंटीग्रेटेड चाइल्ड डिवेलपमेंट सर्विस (ICDS) जिसे 1975 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य 0-6 वर्ष की आयु के बीच के बच्चों के लिए पोषण पूरक, रोग प्रतिरक्षण, और स्वास्थ्य जाँच प्रदान करके बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य को बेहतर बनाना है।

सूरी ने कहा कि, तथापि, ICDS अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करने में विफल रहा है। “कार्यक्रमों का ख़राब कार्यान्वयन, निगरानी का अभाव, लाभार्थियों तक पूरी तरह से पहुँचने में विफलता और समुदाय के कार्यकर्ताओं का अपर्याप्त कौशल” ICDS के द्वारा शारीरिक वृद्धि में कमी और अन्य कुपोषण से सबंधित समस्याओं को अधिक प्रभावी ढंग से कम कर पाने में विफल रहने के कारण हैं।

इसके अतिरिक्त, भारत में अधिकतर पोषण से संबंधित कार्यक्रम जन्म के बाद की अवधि पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। गर्भवती महिला के पोषण की स्थिति और स्वास्थ्य भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि पोषण संबंधी कार्यक्रमों को गर्भवती महिलाओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

इस सरकारी अधिकारी ने कहा कि, आवश्यक रूप से, जहाँ शारीरिक वृद्धि में कमी को सीधे तौर पर पोषण से जोड़ा जाता है, वहीं अध्ययन साफ-सफाई, स्वच्छता, लिंग सशक्तिकरण, रोग प्रतिरक्षण, शिक्षा, गरीबी में वृद्धि और कृषि का उत्पादन जैसे अन्य कारकों के द्वारा शारीरिक वृद्धि में कमी को रोकने के लिए आवश्यक पोषण की अनुपलब्धता में निभाई जाने वाली भूमिका की ओर इशारा करते हैं। इसलिए, शारीरिक वृद्धि में कमी को रोकने की जिम्मेदारी केवल महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ही नहीं होनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि जनजातीय मामलों, जल एवं स्वच्छता, ग्रामीण विकास, आदि के लिए उत्तरदायी मंत्रालयों सहित, कई मंत्रालय और विभाग देश में शारीरिक वृद्धि में कमी की समस्या को कम करने की गति में तेजी लाने के लिए मिलकर कार्य करें।

सूरी ने कहा कि, वर्ष 2017 में, भारतीय सरकार ने प्रधान मंत्री की अति महत्वपूर्ण योजना होलिस्टिक न्यूट्रिशन (पोषण) अभियान का आरंभ किया। वर्ष 2022 तक शारीरिक वृद्धि में कमी, पोषण में कमी और जन्म के समय कम वज़न प्रत्येक को 2% और खून की कमी को 3% तक कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए। यह “आशाजनक प्रतीत होता है” क्योंकि यह “कई मंत्रालयों को मिलकर काम करने का आह्वान करता है”।

यद्यपि, यह आशाजनक कार्यक्रम अरुचि और कार्यान्वयन नहीं करने के कारण विफल हो रहा है। हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भारतीय संसद को सूचित किया कि कई राज्य सरकारों ने पोषण अभियान के क्रियान्वयन के लिए उन्हें आवंटित की गई निधि का उपयोग नहीं किया है, जहाँ बताया जा रहा है कि बिहार ने आवंटित निधि के केवल एक चौथाई हिस्से का ही उपयोग किया है, वहीं पश्चिम बंगाल और उड़ीसा जैसे राज्यों ने इस कार्यक्रम को लागू करने की ओर पहला कदम भी नहीं बढाया है जबकि गोवा और कर्नाटक ने कुपोषण के विरुद्ध लड़ने हेतु दी गई अपनी निधि का उपयोग करना शुरू नहीं किया है।

डेक्कन हेराल्ड में छपे एक सम्पादकीय लेख के अनुसार, “चार सबसे सुस्त राज्यों में से कोई भी पोषण अभियान को लागू करने में कोताही नहीं बरत सकता है” क्योंकि इन सभी राज्यों में “कुपोषण गंभीर स्तर पर” है। बताया जाता है कि कर्नाटक के 30 जिलों में से नो में औसत कुपोषण राष्ट्रीय औसत से अधिक है। कर्नाटक में सामान्य से कम वज़न वाले बच्चों का प्रतिशत लगभग राष्ट्रीय औसत जितना अधिक है। इन परिस्थितियों में, कुपोषण के प्रति अपनी सुस्त पद्धति को न्यायोचित ठहराने के लिए राज्य सरकार के द्वारा दिया जाने वाला कोई बहाना स्वीकार्य नहीं होगा।”

सूरी के अनुसार, बच्चों में पोषण को बढ़ाने के लिए चल रहे कार्यक्रमों को बच्चे के जीवन के पहले 1000 दिनों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि यह अवधि “इस समस्या को सुलझाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवसर है”। उन्होंने संकेत किया कि, इसके अतिरिक्त, “पोषण की कमी, स्तनपान और शिशु और होने वाले बच्चों के बारे में” जागरूकता फैलाना भी ज़रूरी है।

आवश्यक रूप से, सरकारी विभाग और संस्थाएं स्वयं की तरफ से ही कुपोषण और संबंधित समस्याओं के विरुद्ध युद्ध शुरू नहीं कर सकती हैं। निजी क्षेत्र एवं नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) के साथ-साथ विद्यालयों को भी पोषक खाना खाने को वरीयता देने के लिए बढ़-चढ़कर साथ देना होगा। [IDN-InDepthNews – 07 अगस्त 2019]

चित्र का स्रोत: The Hindu में OpEd – For a malnutrition-free India

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