Kalinga Seneviratne द्वारा
सुवा, फिजी (IDN) —हालांकि गन्ना दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र के द्वीप-समूहों के लिए स्वदेशी माना जाता है, लेकिन वो अंग्रेज थे जिन्होंने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इसे एक नगदी फसल के रूप में उपजाना शुरू किया था। 1879 की शुरुआत में 37 सालों की अवधि के दौरान, वे नए तौर पर स्थापित खेती के लिए 5 साल के अनुबंध पर नाम मात्र या बिना वेतन के गिरमिटिया मजदूरों की तरह काम करने के लिए लगभग 60,000 भारतीयों को उनके घरों से 700 मील से भी ज्यादा दूरी पर लेकर आए।
अनुबंध की समाप्ति पर, उन्हें घर वापस जाने की अनुमति होती थी, लेकिन बहुत कम ही इसका फायदा उठा पाते थे, क्योंकि उन्हें वापसी की यात्रा के लिए रकम चुकानी होती थी, जिसका वहन करने वे नहीं कर सकते थे। जीवन-यापन के लिए कई लोग जमीन के छोटे टुकड़े लीज पर ले लेते थे ताकि उसमें गन्ने की फसल उगा सके। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई एक मूल भूमि शीर्षक प्रणाली ने उन्हें भूमि के स्वामित्व से वंचित कर दिया।
आज, इन गिरमिटिया मजदूरों के वंशज-जो इंडो-फिजियन या गिरमिटियास के तौर पर जाने जाते हैं- कुल जनसंख्या के 38 फीसदी हैं लेकिन उनके पास 2 फीसदी से भी कम जमीन है। लगभग 85 फीसदी जमीन स्वदेशी भूमि-स्वामित्व वाली इकाइयों के पास है, जिनका प्रबंधन सरकार की मूल भूमि न्यास बोर्ड करती है जिसे अब iTaukei भूमि न्यास बोर्ड (iTLTB) के नाम से जाना जाता है। बाकी बची जमीनें या तो फ्रीहोल्ड हैं या सरकार के आधिपत्य वाली हैं।
इंडो-फिजियन लोग देशी या मूल भूमि को 30 सालों के लिए iTLTB के जरिए लीज पर दे सकते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस भूमि पर वो खेती करते हैं और जिस भूमि पर अपना घर भी बनाया है, उस भूमि का स्वामित्व उनके पास नहीं है, जिससे कई इंडो-फिजियन लोग खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और वे या तो खेती करना छोड़ रहे हैं या विदेश की ओर पलायन कर रहे हैं।
“यूरोपियनों ने इस सिस्टम को बनाया जबकि ज्यादातर फ्रीहोल्ड उन्हीं के पास था। साल 1940 में मूल भूमि अधिनियम लागू किया गया था। 1940 से 1970 के बीच लीज केवल 10 सालों के लिए ही थी। यह अवधि काफी छोटी थी (खेती के लिए)। यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया था और साल 1977 में ALTA (कृषि जमींदार एवं काश्तकार अधिनियम) आई और 30 साल की लीज दे दी गई, ” IDN के साथ एक इंटरव्यू में राष्ट्रीय किसान यूनियन के अध्यक्ष सुरेन्द्र लाल ने बताया।
“फिजी के लोगों को जमीन से लगाव रहता है और Ratu Mara (स्वतंत्रता के बाद फिजी के पहले प्रधानमंत्री) के बाद यह मुद्दा राजनीतिक हो गया कि फिजी के लोगों का इस पर (भूमि) अधिकार है,” उन्होंने कहा।
Som Padayachi, जो फिजी शुगर कॉर्पोरेशन में एक सहायक फील्ड ऑफिसर हैं, साल 1970 से वो एक गन्ना किसान रहे हैं। शुरुआत में सरकार के लिए काम करने के साथ-साथ वो खेती करते थे। Nadi में अपने बेस से IDN के साथ बात-चीत के दौरान, उन्होंने बताया कि साल 1970 में जहां 23,000 गन्ना किसान थे वहीं आज केवल 11,000 सक्रिय किसान बचे हैं। “उद्योग वर्तमान में घाटे की ओर जा रहा है और सरकार ने चीनी उद्योग की ज्यादातर हिस्सेदारी ले ली है,” उन्होंने कहा। “सभी तीनों मिलें सरकार के आधिपत्य में हैं, यह उनका एकाधिकार है।”
फिजी की सबसे बड़ी चीनी मिल Lautoka (Nadi से लगभग 30 किलोमीटर दूर) में है, जिसने साल 1993 में 1.3 मिलियन टन का उत्पादन किया था, अब फिजी में मौजूद सभी तीनों मिलें 1.6 मिलियन टन का उत्पादन करती हैं।
तो, Padayach फिजी के चीनी उद्योग के भविष्य को लेकर चिंतित हैं, जो देश का दूसरा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा कमाने वाला उद्योग है। “जब किसानों के पास कोई समस्या होती है, वह (सरकार) सिस्टम के जरिए उनकी सहायता करती है। जैसे उर्वरक पर सब्सिडी देना, जलनिकासी में सहायता करना, शाकनाशक पर सब्सिडी देना। यह फिजी के गन्ना उत्पादक काउंसिल द्वारा दिया जाता है,” उन्होंने बताया।
“इस वक्त सरकार बहुत ज्यादा मदद कर रही है। गारंटीकृत बिक्री मूल्य FJ$85 प्रति टन है। यहां तक कि यदि सरकार को इसे कवर करने के लिए राजस्व नहीं मिलता है, तब भी वे इसका भुगतान करते हैं (किसानों द्वारा शिकायत करने पर),” Padayachi ने IDN से कहा।
लाल ने कहा कि फ्रीहोल्ड जमीन चीनी मिलों से काफी दूर है और लोगों के लिए इन जमीनों को खरीदना और गन्ने की खेती करना आर्थिक रूप से व्यवहारिक नहीं है। “सरकार फ्रीहोल्ड क्षेत्रों में मिलों की स्थापना करना नहीं चाहती, यह सरकार की दूरदर्शिता में कमी को दिखाता है और नई मिलों के लिए बहुत सारे बुनियादी ढांचें और निवेश की आवश्यकता होती है।” 1999 में, जब 70 से 80 फीसदी लीज समाप्त हो गई थी, तब लीज के नवीनीकरण के लिए कई भूस्वामियों से FJ$40,000-60,000 (USD 18,000-27,000) राशि की मांग की गई, जिसका भुगतान करने में ज्यादातर किसान सक्षम नहीं थे।
“वह एक बड़ी रकम है। इसलिए, लोगों ने फैसला किया कि अपने बच्चों को शिक्षित करेंगे और नौकरी की तलाश में किसी दूसरी जगह भेजेंगे। किसानों का कहना है, कि जब मैं और मेरी पत्नी चले जाएंगे तब यह जमीन खाली हो जाएगी” लाल ने कहा, “ चीनी की पैदावार कम हो रही है, परिवहन और उर्वरक की कीमतें बढ़ती जा रही हैं और किसानों को कम लाभ मिल रहा है”। उन्होंने यह भी गौर किया कि सालाना किराया (जमींदारों को दिया जाने वाला) लगभग FJ$1000-2000 (USD 451—902) है और “बैंक गन्ना किसानों को अब लोन देना नहीं चाहते”।
1987 में Sitiveni Rabuka द्वारा एक नई सरकार के तख्ता पलट के समय से, जिसे इंडो-फिजियन के प्रभुत्व के रूप में देखा गया था, इसने कई लोगों को—खासकर पेशेवर योग्यता वाले लोगों को विदेश भेजा- जैसे ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देशों में भेजा, और इंडो-फिजियन लोगों की संख्या 51 फीसदी से घटकर 38 फीसदी रह गई।
Frank Bainimarama के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार के तहत नस्लीय संबंधों में सुधार हुआ है और कैबिनेट में महत्वपूर्ण पदों पर इंडोफिजियन लोगों की एक बड़ी संख्या काबिज है। 2013 में अपनाए गए नए संविधान में सभी फिजीवासियों को उनके प्रवासी पृष्ठभूमि के बावजूद फिजी का निवासी घोषित किया गया है। सरकार ने 14 मई को गिरमिट दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा की है, यह वो दिन है जब साल 1879 में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की पहली खेप देश में पहुंची थी। यह दिन अब पूरे देश में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ मनाया जाता है, जिसमें सरकार के नेता शामिल होते हैं।
महेंद्र चौधरी, फिजी के पहले और एकमात्र इंडो-फिजियन प्रधानमंत्री (1999-2000) और राष्ट्रीय किसान संघ के पूर्व महासचिव ने IDN से एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि चीनी उद्योग उत्पादन लागत में बढ़ोतरी और जमींदारों द्वारा अपनी भूमि को लीज पर देने में बढ़ते प्रीमियम की मांग के कारण पिछले तीन दशकों में लगभग 60 फीसदी घट गया है। “उन दिनों हमारा यूरोप के लोगों के साथ समझौता हुआ था और कीमतों की गारंटी थी। कीमतें वैश्विक बाजार की कीमतों से दो से तीन गुनी ज्यादा बेहतर थीं। अब सबकुछ बदल गया है,” वो कहते हैं। “लगभग 10,000 लोग विभिन्न कारणों से (खेती से) दूर चले गए हैं।”
कई लोगों की शिकायत होती है कि जमीन की लीज समाप्त होने के बाद उन्हें जब संपत्ति छोड़नी होती है, तो उस संपत्ति पर बनाए गए घरों के लिए उन्हें मुआवजा नहीं दिया जाता है। चौधरी के छोटे कार्यकाल के दौरान, इस तरह के मुआवजे के लिए कानून बनाया गया। “जब हम सरकार में थे, हमने पुनर्वास की लागत को कवर करने के लिए किसान को मुआवजा दिया। हमने सुझाव दिया कि या तो सरकार द्वारा आवंटित जमीन पर पुनर्वास करें या नगद राशि लें और आप इसके साथ जो चाहें वो करें….एक नया घर बनाए या व्यवसाय करें या जो भी आप करना चाहें। 2000 के तख्ता पलट के बाद (जिसने चौधरी के शासन को उखाड़ फेंका) उस विशेष योजना को बंद कर दिया गया,” साथ ही उन्होंने कहा, “मौजूदा सरकार इसे वापस लेकर आई है”।
Padayachi कहते हैं कि स्वदेशी फिजीवासियों को जमीन तो मिल गई है लेकिन वो गिरमिटिया मजदूरों के वंशजों जितने कठिन परिश्रमी नहीं हैं। फिर भी, यह विडंबना ही है कि खेती के समय, गन्ना किसान अपने स्वदेशी श्रमिकों पर निर्भर होते हैं।
“सरकार उन्हें गन्ना खेती की ओर लाने का प्रयास कर रही है, लेकिन वे केवल कसावा, टारो जैसी अपनी पारंपरिक खेती करने में ही रुचि रखते हैं। वे गांव में रहते हैं और उनके पास एक स्व-सहायता प्रणाली है,” वो कहते हैं।
इस साल जून में एक प्रांतीय परिषद की बैठक को संबोधित करने के दौरान, Bainimarama ने स्वदेशी नेताओं को आश्वस्त किया कि भूमि अधिनियम में लाए गए हाल के बदलाव इस तरह बनाए गए हैं ताकि जमींदारों को लीज का स्वामित्व पाने और भूमि को विकसित करने के लिए बैंकों से लोन प्राप्त करने में सहायक हो। उन्होंने कहा कि सीड फंड ग्रांट्स के माध्यम से सरकार जमींदारों को अपनी लीज पर ली गई जमीन को सीधे विकसित करने के लिए सशक्त बनाने का प्रयास कर रही है।
इसी बीच, लाल कहते हैं “हमारी (इंडो-फिजियन) संख्या घट रही है, और इससे राजनीतिक दृश्य में भी बदलाव आ रहा है। हमारी जन्म दर कम हो रही है, और प्रवासगमन बढ़ रहा है”। [IDN-InDepthNews – 23 जुलाई 2022]
तस्वीर: किसान का घर- लीज की समाप्ति के बाद इंडो-फिजियन गन्ना किसान का घर (शीर्ष पर) और परित्यक्त घर और संपत्ति (आगे के भाग में)