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कोविड से बुरी तरह से ग्रस्त भारत संकट से जूझने की मुश्किल में

शास्त्री रामचंदरन द्वारा*

नई दिल्ली (आईडीएन) — भारत में कोविड-19 के संक्रमणों और मौतों की सुनामी बेखटके बढ़ती जा रही है जबकि लोग और केंद्र तथा राज्य सरकारें अस्पताल के बिस्तरों, दवाईयों, वेंटिलेटरों और इस संकट को काबू में लाने के लिए जरूरी अन्य सभी वस्तुओं की कमी से संघर्ष करने में लगी हुई हैं। भयावह मौतों और मरने वालों की दुर्दशा ने भी लोगों में डर का माहौल उत्पन्न कर दिया है जहाँ वे नहीं जानते कि वह कब, कहाँ और किस पर, किस रूप में हमला कर सकता है; और, यह कि वे या उनके प्रियजन इससे ग्रस्त हो जाते हैं तो वे उससे कैसे मुकाबला करेंगे।

एक पत्रकार होने के नाते, मैं काम से संबंधित कई संदेश समूहों में हूँ, जहाँ मेरे न्यूजरूम, विभिन्न मंत्रालयों, समकक्ष समूहों आदि से आने वाले संदेश एक टिकर-टेप की तरह, प्रति घंटा 100 या उससे अधिक की दर से प्रवाहित होते हैं। लगभग हर एक समाचार कोविड, उसके द्वारा भारत और सारी दुनिया में उत्पन्न मौतों तथा ऐसे बीसियों देशों से आ रही चिकित्सीय राहत आपूर्तियों के बारे में है जो भारत की मदद करने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहे हैं—यह शायद 1947 में बँटवारे के बाद से देश में एक साथ इतनी मौतें लाने वाला सबसे बुरा समय है।

मैं 1350 फ्लैटों वाले एक भवन-समूह में रहता हूँ और हमारे समुदाय के अनेक व्हाट्सैप समूहों में सभी संदेश कोविड से संबंधित हैं: कोई मर गया है, मर रहा है, किसी को ऑक्सीजन, ऑक्सीजन कॉंसेंट्रेटर, अस्पताल में  आईसीयू में या उसके बाहर वेंटिलेटर वाला या उसके बगैर बिस्तर; या एम्बुलेंस; कोई खास दवाई; या भोजन, पैसे, भौतिक सहायता, दवाईयों और ऑक्सीमीटर के रूप में उत्तरजीविता समर्थन या शव को श्मशान ले जाने के लिए लोग चाहिए।

मैं जिन-जिन व्हाट्सैप, टेलीग्राम, सिग्नल और ऐसे “ओवर द टॉप” समूहों का हिस्सा हूँ, चाहे वे व्यावसायिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हों या किसी क्लब, समुदाय, संगठन या कार्यसमूह के हों, सभी दिल को दहलाने वाले समाचारों, अत्यावश्यक अपीलों और कोविड के लगातार प्रहार से जीवित बचने की लड़ाई में डूबे लोगों, परिवारों, समूहों, गैर-सरकारी संगठनों, सेवा संस्थानों और संस्थाओं के बेतहाशा अनुरोधों से भरे पड़े हैं। ट्विटर जैसे सोशल मीडिया भी बचाने का अनुरोध करने वाले संदेशों और मदद की पेशकशों से सरोबार हैं।

लॉकडाउन या कर्फ्यू के कारण घर में बंद इस जीवन के लिए राहत की किरण तब दिखाई देती है जब किराने का सामान, दूध-दही, फल, सब्ज़ियाँ या अन्य जरूरी वस्तुएं लेकर कोई व्यक्ति आपके दरवाजे पर दस्तक देता है। गनीमत है, वह आपके उन पड़ोसियों में से एक नहीं है, जिनके आपने कई सप्ताहों से नहीं तो कई दिनों से तो दर्शन ही नहीं किए हैं, जबकि जीवन के सामान्य होने पर उनसे आपकी मुलाकात रोजाना ही हो जाती है। आपकी चौखट पर किसी पड़ोसी या मित्र के दिखाई न देने का मतलब है कि कोई समाचार नहीं है, जो कि शुभ समाचार है।

बाहरी दुनिया की झलक प्रत्यक्ष तौर पर, किसी जरूरी चीज़ के लिए थोड़े समय के लिए बाहर निकलने पर; अथवा अखबारों, टीवी, सोशल मीडिया और मेरे फोन पर आने वाले अनगिनत वीडियो और तस्वीरों के माध्यम से हो सकती है। इस वैश्विक महामारी में जीवन उस किसी भी चीज़ से बहुत-बहुत बदतर है जिसके बारे में मैंने पढ़ा है या यूरोप के प्लेग, पिछली शताब्दी की स्पैनिश फ्लू महामारी या 1947 में भारत के बँटवारे में हुई मौतों के बारे में फिल्मों में देखा है।

“हम ऐसी, भारत के बँटवारे के बाद से हमारे सामने आने वाली इतनी बड़ी आपदा के चंगुल में कैसे फंस गए?”, यह सवाल है भूतपूर्व राजनयिक राकेश सूद का, जो 2013 में निरस्त्रीकरण और परमाणु प्रसार निरोध के लिए प्रधानमंत्री के विशेष राजदूत थे। 1947 में पाकिस्तान के बनने के साथ हुए भारत के बँटवारे के पश्चात् हुए खून-खराबे में सैकड़ों-हजारों लोग मारे गए थे।

कई लोग महामारी की बँटवारे के दंगों के साथ तुलना से चौंक सकते हैं; एक है प्राकृतिक विपदा जबकि दूसरा मानव-निर्मित संघर्ष है। हालांकि, लोगों की बड़ी संख्या में होने वाली मौतों में सरकार और सरकारी संस्थाओं की विफलता आम है, जिसने तबाही को बढ़ा दिया है और व्यवस्था को और भी अधिक निष्क्रिय कर दिया है, जिससे मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा हो गई है। जब भारत कोविड की दूसरी लहर की चपेट में आया हुआ है, तब यह कहना कठिन है कि मौतों की बढ़ती संख्या का कारण संक्रमण है या लापरवाही; या, महत्वपूर्ण चिकित्सा सुविधाओं, जीवन-रक्षक समर्थन जैसे ऑक्सीजन या कुछ दवा-दारू के साथ मिलने वाले अस्पताल के बिस्तरों का अभाव है।

दिल्ली में, हर तरफ लोग मर रहे हैं, हर घंटे ज्यादा नहीं तो कम से कम 10 से 15 के हिसाब से। सारा शहर मृत और मर रहे लोगों का आतंक राज्य बन गया है जहाँ हर ओर शवग्रह तथा श्मशान नज़र आ रहे हैं: बीसियों चिताएं, श्मशान से बाहर फुटपाथों और सड़कों पर भी अंतहीन रूप से जल रही हैं। टीवी, सोशल मीडिया और अखबार दूसरे छोटे-बड़े भारतीय शहरों से भी ऐसे ही भयानक नज़ारे दिखा रहे हैं जिनसे लोग गुज़र रहे हैं। चिताएं लगातार, चौबीसों घंटे जल रही हैं; चिताओं से धुएं के गहरे बादल उठ रहे हैं और शहरों के आसमान में कफन की तरह फैल रहे हैं; स्टील के पाइप, जिनमें से धुआँ जा रहा है, यहाँ-वहाँ गर्मी से पिघल जा रहे हैं।

दिल्ली और अन्य शहरों में हर श्मशान घाट के बाहर शवों की लंबी कतारें हैं। हर शहर में श्मशान घाटों द्वारा दी गई मृतकों की संख्याएं आधिकारिक संख्याओं से बहुत अधिक हैं, जो काफी डरावनी हैं। 5 मई को, विश्वभर में कोविड से होने वाली मौतों में से आधी भारत में हुईं—24 घंटे में लगभग 4000—और संक्रमित लोगों की संख्या 382,000 थी। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक मौतों और संक्रमणों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों का पाँच से दस गुना हो सकती है। ब्रिटेन के फाइनैंशियल टाइम्स ने मौतों और संक्रमणों के प्रामाणिक अनुमान के आधिकारिक आंकड़ों का आठ गुना होने की बात प्रकाशित की थी।  एक बिंदु से परे, आंकड़े महत्वपूर्ण नहीं होते हैं, क्योंकि वे परिवार, मित्रों और प्रति घंटे की दर से आंकड़ों में बदलते लोगों की हानि की सच्चाई नहीं बताते हैं।

अस्पतालों का दृश्य किसी भी श्मशान के दृश्य के जितना ही बुरा है। लोगों की भीड़ अस्पतालों पर उमड़ रही है और बिस्तर, ऑक्सीजन और आपात्कालीन राहत के लिए बेताब रोगियों से भरी सैकड़ों नहीं तो बीसियों एम्बुलेंसें और गाड़ियाँ प्रतीक्षा कर रही हैं; अधिकांश अस्पतालों और उनके कर्मचारियों के पास इस संकट में प्रदान करने लायक क्षमता ही नहीं है। कोविड की पहली लहर में, जो पिछले साल शुरू हुई थी, मरने वालों में डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य देखभाल कार्मिकों की सबसे बड़ी संख्या थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को इस परिस्थिति के लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, जो कि मुख्य रूप से उसके तैयार न रहने के कारण उपस्थित हुई है; इसका एक कारण मोदी का अक्खड़पन, सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता न देने की लापरवाही और उन लोगों की अवहेलना भी है जिन्होंने दूसरी लहर की चेतावनी दी थी। भारत में दूसरी लहर के फैलने के चंद दिनों पहले ही मोदी और उनके स्वास्थ्य मंत्री ने कोविड-19 के खिलाफ युद्ध में जीत की घोषणा की थी। मोदी ने विश्व आर्थिक मंच में बड़े जोर-शोर से कहा कि भारत दुनिया के लिए कोविड के खिलाफ लड़ाई में सफलता का एक उदाहरण है। भारत में विश्व के सबसे बड़े टीका निर्माता द्वारा बनाए गए कोविड टीके को बड़े ताम-झाम के साथ कई देशों को निर्यात किया गया और घोषणाएं की गईं कि भारत “विश्व की फार्मेसी” है।

प्रदर्शित किए गए इस चित्र के अनुरूप, भारत सामान्य काम-काज में लौट आया और कोविड के प्रति सावधानियों को नाममात्र के लिए दोहराते हुए, लेकिन वास्तव में उन्हें नज़रअंदाज करते हुए, मॉल, फिल्म थिएटर, क्लब, बार, होटल, रेस्तरां, सार्वजनिक परिवहन, कार्यस्थल इत्यादि खोल दिए गए। प्रधानमंत्री और सरकार को वैश्विक महामारी को भगा देने को लेकर इतना भरोसा था कि मोदी, उनके मंत्री और पार्टी के शीर्ष कर्ता-धर्ता पूरे जोश के साथ चुनाव-प्रचार में जुट गए। सार्वजनिक स्वास्थ्य की सावधानियों और प्राथमिकताओं को न केवल नकार दिया गया बल्कि ताक पर भी रख दिया गया। कोविड के प्रकोप का सामना करने के लिए अत्यंत जरूरी ऑक्सीजन, बिस्तरों और अस्पतालों की क्षमता बढ़ाने के लिए शुरू किए गए प्रयासों को तिलांजलि दे दी गई। वेंटिलेटर बनाने, ऑक्सीजन और कॉंसेंट्रेटरों की क्षमता का निर्माण करने की जरूरत को भुला दिया गया। अस्पतालों और बिस्तरों की संख्या बढ़ाने और विस्तारित करने की बजाय, अस्थायी तौर पर बनाए गए अस्पतालों को भी बंद कर दिया गया।

सरकार ने गंगा के किनारे होने वाले धार्मिक उत्सव, कुँभ मेले के मार्च-अप्रैल में आयोजन को भी अनुमति दे दी, जिसमें किसी भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन किए बगैर लगभग पचास से सत्तर लाख लोगों ने भाग लिया। अब इस बात का डर है कि कुँभ मेले से हर ओर फैलने वाले संक्रमण को खत्म होने में महीनों लग सकते हैं। इस परिदृश्य के बीच, सरकार ने एक तीसरी लहर की चेतावनी दी है, जिसके लिए कोई समयावधि निर्दिष्ट नहीं की गई है। और, इस समय, दिल्ली (और अन्य शहरों) में अस्थायी अस्पतालों के तेजी से निर्माण के साथ-साथ, डॉक्टरों, स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारियों और चिकित्सीय उपकरणों और आपूर्तियों की गंभीर कमी देखी जा रही है। सारी दुनिया से प्राप्त हुई राहत सामग्री भी, बिना किसी व्यक्त कारण के, विमान-स्थलों पर ही पड़ी है।

ब्राउन युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रोफेसर और डीन तथा वैश्विक स्वास्थ्य के अग्रणी विशेषज्ञ, आशिष झा ने द वायर को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि मोदी सरकार द्वारा अपने खुद के वैज्ञानिकों की सलाह मानने से इंकार भारत के वर्तमान कोविड-19 संकट के मुख्य कारणों में से एक है।

ठीक जैसे अब अस्पतालों का मतलब उत्तरजीविता के लिए जीवनरेखा नहीं रह गया है, वैसे ही बीमा भी खास तौर पर पत्रकारों सहित मैदान में लड़ने वाले कार्मिकों के लिए किसी व्यावहारिक उपयोग का नहीं है। जिन लोगों के पास इसका कवर है, वे भी दिल्ली (या किसी अन्य कोविड हॉटस्पॉट) में संक्रमित होने पर कहीं नहीं जा सकते हैं और बस यूँ ही पड़े रहने और मरने के अलावा उनके पास कोई और चारा नहीं है; क्योंकि जरूरतमंद लोगों के इलाज के लिए कोई चिकित्सीय आपूर्ति, स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारी, अस्पतालों में बिस्तर और सुविधाएं, तथा ऑक्सीजन और आवश्यक दवाईयाँ उपलब्ध नहीं हैं। दिल्ली में कम से कम 52 और भारत भर में 100 से अधिक पत्रकारों की मृत्यु हुई है।

दूसरी लहर ने केंद्र सरकार को टीकाकरण में भी तेजी लाने पर मजबूर किया है, लेकिन अधिकांश राज्यों के पास इसके पहले दिन, 1 मई को प्रक्रिया को शुरू करने के लिए स्टॉक नहीं थे। आधिकारिक दावे वास्तविकता से भिन्न हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, हालांकि भारत विश्व का सबसे अधिक टीके बनाने वाला राष्ट्र है, केवल 14.16 करोड़ लोगों को टीके की कम से कम एक खुराक प्राप्त हुई है जो इसकी 135 करोड़ आबादी का लगभग दस प्रतिशत ही है। देश में 4 करोड़ से थोड़े से अधिक लोगों या इसकी आबादी के 2.9 प्रतिशत ने पूरी तरह से टीकाकरण करवाया है। इस दर पर, समूची आबादी का टीकाकरण करने में दो वर्ष लग जाएंगे, खास तौर पर जब टीके की आपूर्तियों के केवल अगस्त के बाद, दिसंबर के करीब, शुरू होने की संभावना है। इस समय तक, कोविड दूर जा चुका होगा या कम से कम उसकी लहर तबाही और मौत का तांडव पूरी तरह से मचा चुकी होगी।

सार्वजनिक टीकाकरण की तथाकथित योजना महामारी, चिकित्सा आपूर्तियों, अवसंरचना, उपचार के तरीकों के प्रबंधन की तरह ही अव्यवस्थित है; और, इन सभी की उपलब्धता माँग से बहुत कम है। विराट कुप्रबंधन के अलावा, केंद्र और राज्य सरकारों पर मौतों के वास्तविक आंकड़े साझा न करने, पूछताछों का जवाब न देने, वैज्ञानिकों और चिकित्सा विशेषज्ञों के सुझावों को न मानने तथा ऐसे संकट के दौरान जितना आवश्यक है, आम तौर पर उससे कम क्रियाशील होने का आरोप है।

16 मई को कोरोनावायरस के विभिन्न प्रकारों की पहचान करने के लिए सरकार द्वारा स्थापित वैज्ञानिक सलाहकारों के एक मंच से वरिष्ठ वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील का इस्तीफा इस तथ्य पर जोर देता है। उनका इस्तीफा अधिकारियों द्वारा वैश्विक महामारी से निपटने के तरीके पर सवाल उठाने के चंद दिनों बाद आया है। डॉ. जमील ने हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में वैज्ञानिकों का सामना “प्रमाण पर आधारित नीति-निर्माण प्रक्रिया के प्रति एक अड़ियल प्रतिक्रिया” से हो रहा है। उन्होंने भारत के कोविड-19 प्रबंधन से संबंधित मुद्दों, खास तौर पर, परीक्षणों की संख्या में कमी, टीकाकरण की धीमी गति, टीकों की कमी और बड़े स्वास्थ्य देखभाल कार्यबल की जरूरत की ओर ध्यान खींचा था। “भारत में मेरे साथी वैज्ञानिक इन सभी उपायों का व्यापक समर्थन कर रहे हैं। लेकिन, प्रमाण पर आधारित नीति-निर्माण प्रक्रिया का अड़ियल प्रतिरोध किया जा रहा है,” उन्होंने लिखा।

आतंक राज्य की छवियों को दर्शाने वाले उपन्यासों और फिल्मों की कोई कमी नहीं है। मगर भारत की वास्तविकता कहानियों या फिल्मों में कल्पित या फिल्माई गई किसी भी चीज से अवर्णनीय रूप से अधिक डरावनी है। यूरोप में प्लेग और स्पैनिश फ्लू का सबसे प्रामाणिक और तबाही से भरा वर्णन भी भारत में कोविड की दूसरी लहर द्वारा उत्पन्न दुःस्वप्न का सामना करने के लिए तैयार करने के लिए पर्याप्त नहीं है। [IDN-InDepthNews – 17 मई 2021]

लेखक, जो नई दिल्ली में स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार, संपादकीय परामर्शदाता-WION टीवी और आईडीएन के वरिष्ठ संपादकीय परामर्शदाता हैं।

फोटो: भारत के अभिभूत हो चुके श्मशान घाट। स्रोत: यूएसए टुडे।

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